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धर्म- वट सावित्री व्रत पूजा आज, लॉक डाउन में घरों में ही महिलायें कर रही है पूजन

पौराणिक मान्यता के अनुसार हर वर्ष वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता रहा है। इस वर्ष यह तिथि 22 मई शुक्रवार को पड़ी है मान्‍यता है कि इसी दिन पतिव्रता सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्‍यवान के प्राणों की रक्षा की थी।

 वट सावित्री व्रत का क्या है महत्व



वट सावित्री के दिन सभी सुहागन महिलाएं पूरे 16 श्रृंगार कर बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं। ऐसा पति की लंबी आयु की कामना के लिए करने का पौराणिक मान्यता है।  पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन ही सावित्री ने अपने दृढ़ संकल्प व श्रद्धा से यमराज द्वारा अपने मृत पति सत्यवान के प्राण वापस पाए थे। इस कारण से ऐसी मान्यता चली आ रही है कि जो स्त्री सावित्री के समान यह व्रत करती है उसके पति पर भी आनेवाले सभी संकट इस पूजन से दूर होते हैं। इसलिये इस दिन महिलाएं वट वृक्ष (बरगद) के नीचे सावित्री-सत्यवान व अन्य इष्टदेवों का पूजन करती हैं। वट वृक्ष के पूजा के कारण से इस व्रत का नाम वट सावित्री पड़ा है।
इस व्रत के परिणामस्वरूप सुखद व संपन्न दांपत्य जीवन का वरदान प्राप्त होता है। ऐसे वट सावित्री का व्रत समस्त परिवार की सुख-संपन्नता के लिए भी किया जाता है। दरअसल सावित्री ने यमराज से न केवल अपने पति के प्राण वापस पाए थे, बल्कि उन्होंने समस्त परिवार के कल्याण का वर भी प्राप्त किया था।
शास्त्रों के अनुसार, वट सावित्री व्रत में पूजन सामग्री का खास महत्व होता है। ऐसी मान्यता है कि सही पूजन सामग्री के बिना की गई पूजा अधूरी  मानी जाती है। पूजन सामग्री में बांस का पंखा, चना, लाल या पीला धागा, धूपबत्ती, फूल, कोई भी पांच फल, जल से भरा पात्र, सिंदूर, लाल कपड़ा और फल मिठाई आदि का होना अनिवार्य होता है।
व्रत के दिन महिलाएं सुबह उठकर नित्यकर्म से निवृत होने के बाद स्नान आदि कर शुद्ध हो नए वस्त्र पहनकर, सोलह श्रृंगार कर इसके बाद पूजन की सारी सामग्री को एक टोकरी, प्लेट या डलिया में सही से रख करवट (बरगद) वृक्ष के नीचे सफाई करने के बाद वहां सभी सामग्री रखने के बाद स्थाग ग्रहण करने के बाद  पहले सत्यवान व सावित्री की मूर्ति को वहां स्थापित कर पूजन करती है। फिर बांस के पंखे से सावित्री-सत्यवान को हवा करते हुए बरगद के पत्ते को अपने बालों में लगा बाद धागे को पेड़ में लपेटते हुए बरगद के पेड़ की परिक्रमा कर अंत में सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती है

यह है पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के अनुसार मद्र देश के राजा अश्वपति को पत्नी सहित सन्तान के लिए सावित्री देवी का विधिपूर्वक व्रत तथा पूजन करने के पश्चात पुत्री सावित्री की प्राप्त हुई। फिर सावित्री के युवा होने पर एक दिन अश्वपति ने मंत्री के साथ उन्हें वर चुनने के लिए भेजा। जब वह सत्यवान को वर रूप में चुनने के बाद आईं तो उसी समय देवर्षि नारद ने सभी को बताया कि महाराज द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की शादी के 12 वर्ष पश्चात मृत्यु हो जाएगी। इसे सुनकर राजा ने पुत्री सावित्री से किसी दूसरे वर को चुनने के लिए कहा मगर सावित्री नहीं मानी। नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञात करने के बाद वह पति व सास-ससुर के साथ जंगल में रहने लगीं।
इसके बाद नारदजी के बताए समय के कुछ दिनों पूर्व से ही सावित्री ने व्रत रखना शुरू कर दिया। जब यमराज उनके पति सत्यवान को साथ लेने आए तो सावित्री भी उनके पीछे चल दीं। इस पर यमराज ने उनकी धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा तो उन्होंने सबसे पहले अपने नेत्रहीन सास-ससुर के आंखों की ज्योति और दीर्घायु की कामना की। फिर भी सावित्री को पीछे आता देख दूसरे वर में उन्हें यह वरदान दिया कि उनके ससुर का खोया राज्यपाठ वापस मिल जाएगा। आखिर में सावित्री ने सौ पुत्रों का वरदान मांगा। चतुराई पूर्वक मांगे गए वरदान के जाल में फंसकर यमराज को सावित्री के पति सत्यवान के प्राण वापस करने पड़े। यमदेव ने चने के रूप में सत्यवान के प्राण लौटाए थे। इसलिए प्राण रूप में वटसावित्री व्रत में चने का प्रसाद अर्पित किया जाता है।

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