नेपाल डेस्क (राज टाइम्स)। कोविड 19 की त्रासदी के बीच पड़ोसी देश नेपाल में थारू समुदाय के द्वारा परम्परागत तीज पर्व का रौनक छाया है।
इस मौके पर थारु बस्ती में डोला (झूला) लगा कर परम्परागत पोशाक में सज कर थारू समुदाय की महिलाएं झूला झूलते हुए श्रावण महीने की परम्परागत गीत गाती है। वही थारू समुदाय की नवविवाहित बेटियों को माइती आना प्रारंभ हो गया है। इन सभी के बीच थारू बस्ती में अब सांस्कृतिक माहौल देखकर मन मन्त्रमुग्ध हो जाता है।
थारु समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला तीज अन्य समुदाय की तुलना में एकदम अलग है। एक महिना तक तीज मनाए जाने वाले इस समुदाय के आँगन में झूला लगाने के दिन से ही तीज की शुरुआत होती है। आँगन में लगाए गए झूले को डोला कहा जाता है। झूला बनाने के लिए भाई बहन एक साथ मिलकर जंगल से बाँस को काट कर लाते है। थारू कल्याणकारी महासभा की नेत्री सह थारू संस्कृति की जानकार कल्पना थारू के अनुसार भाई बहन के बीच आत्मीयता बढ़ाने के विश्वास से यह पर्व मनाया जाता है। कल्पना थारू के अनुसार बिहार व झारखंड में भी थारू समुदाय की अच्छी जनसंख्या है ।पुर्णिया के डगरुआ ,फारबिसगंज के खवासपुर ,चकरदाह में भी थारू समुदाय के बसोबास है ।जो इस संस्कृति से बिलुप्त हो चुके है।
हिन्दु धर्म में श्रीमान के दीर्घायु तथा कुमारी कन्या के द्वारा महादेव जैसे वर के लिए तीज का ब्रत रखने का धार्मिक मान्यता है। लेकिन थारू समुदाय में तीज को अलग ढंग से मनाया जाता है ।अच्छा वर या श्रीमान के दीर्घायु के लिए न हो कर भाईयो के आरोग्यता व दीर्घायु के लिए तीज थारु समुदाय में मनाया जाता है ।
संकट से मुक्ति दिलाने के लिए थारू महिला के द्वारा भाईयो व भतिजा के जीवनरक्षा, दीर्घायु, सुख , समृद्धि के कामना करते हुए व्रत रहने का जनविश्वास है। थारू समुदाय में श्रावण तृतीया को तिज का मुख्य दिन माना जाता है ।इस दिन महिलाओं के द्वारा निराहार व्रत रहने का प्रचलन है। व्रत रहे महिलायें के द्वारा पूजा में सिमही, गुलगुला,पापड़, पुरी सहित अन्य परम्परागत पकवान पकाती है ।
व्रतालु महिला के द्वारा साँझ पख में नदीकिनार में जा कर पूजा अर्चना करती है । गडरौदा जात के घाँस व कुस में विवाहित के द्वारा सात व अविवाहित के द्वारा पाँच गाँठ दे कर पूजा करती है । पूजा समाप्त होने पर चाँदी के गहना व सिक्का से उसको काटा जाता है प्रसाद के रूप में पकवान को नदी में बहा दिया जाता है ।
विसर्जन के समय बहनों के द्वारा भाईयो के लिए धन सम्पत्ति, उन्नति व दीर्घायु की कामना करती है। भाईयो की उम्र नदी के जितना लम्बा होने के कामना के साथ ही रास्ते मे लम्बी डोरी से रास्ते को घेर कर रखने का परंपरा है।
इस मौके पर थारु बस्ती में डोला (झूला) लगा कर परम्परागत पोशाक में सज कर थारू समुदाय की महिलाएं झूला झूलते हुए श्रावण महीने की परम्परागत गीत गाती है। वही थारू समुदाय की नवविवाहित बेटियों को माइती आना प्रारंभ हो गया है। इन सभी के बीच थारू बस्ती में अब सांस्कृतिक माहौल देखकर मन मन्त्रमुग्ध हो जाता है।
थारु समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला तीज अन्य समुदाय की तुलना में एकदम अलग है। एक महिना तक तीज मनाए जाने वाले इस समुदाय के आँगन में झूला लगाने के दिन से ही तीज की शुरुआत होती है। आँगन में लगाए गए झूले को डोला कहा जाता है। झूला बनाने के लिए भाई बहन एक साथ मिलकर जंगल से बाँस को काट कर लाते है। थारू कल्याणकारी महासभा की नेत्री सह थारू संस्कृति की जानकार कल्पना थारू के अनुसार भाई बहन के बीच आत्मीयता बढ़ाने के विश्वास से यह पर्व मनाया जाता है। कल्पना थारू के अनुसार बिहार व झारखंड में भी थारू समुदाय की अच्छी जनसंख्या है ।पुर्णिया के डगरुआ ,फारबिसगंज के खवासपुर ,चकरदाह में भी थारू समुदाय के बसोबास है ।जो इस संस्कृति से बिलुप्त हो चुके है।
हिन्दु धर्म में श्रीमान के दीर्घायु तथा कुमारी कन्या के द्वारा महादेव जैसे वर के लिए तीज का ब्रत रखने का धार्मिक मान्यता है। लेकिन थारू समुदाय में तीज को अलग ढंग से मनाया जाता है ।अच्छा वर या श्रीमान के दीर्घायु के लिए न हो कर भाईयो के आरोग्यता व दीर्घायु के लिए तीज थारु समुदाय में मनाया जाता है ।
संकट से मुक्ति दिलाने के लिए थारू महिला के द्वारा भाईयो व भतिजा के जीवनरक्षा, दीर्घायु, सुख , समृद्धि के कामना करते हुए व्रत रहने का जनविश्वास है। थारू समुदाय में श्रावण तृतीया को तिज का मुख्य दिन माना जाता है ।इस दिन महिलाओं के द्वारा निराहार व्रत रहने का प्रचलन है। व्रत रहे महिलायें के द्वारा पूजा में सिमही, गुलगुला,पापड़, पुरी सहित अन्य परम्परागत पकवान पकाती है ।
व्रतालु महिला के द्वारा साँझ पख में नदीकिनार में जा कर पूजा अर्चना करती है । गडरौदा जात के घाँस व कुस में विवाहित के द्वारा सात व अविवाहित के द्वारा पाँच गाँठ दे कर पूजा करती है । पूजा समाप्त होने पर चाँदी के गहना व सिक्का से उसको काटा जाता है प्रसाद के रूप में पकवान को नदी में बहा दिया जाता है ।
विसर्जन के समय बहनों के द्वारा भाईयो के लिए धन सम्पत्ति, उन्नति व दीर्घायु की कामना करती है। भाईयो की उम्र नदी के जितना लम्बा होने के कामना के साथ ही रास्ते मे लम्बी डोरी से रास्ते को घेर कर रखने का परंपरा है।
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