अररिया। रमजान सब्र का महीना है, इसलिए रमजान में पड़ोसियों का खासकर ज्यादा ख्याल रखें। उन्हें अपने अफ्तारी में साथ बैठाएं। उक्त बातें सीमानचल समाज सेवा मंच के अध्यक्ष व जमियत उलेमा हिंद के सक्रिय सदस्य मौलाना कासिम नूरी कासमी ने रमजानुल मुबारक के फैजीलत पर कही। उन्होंने कहा कि रमजान महीने की शुरुआत हो चुकी है। रमजान हिजरी कैलेंडर और कमरी साल का नौवां महीना है। मजहब-ए-इस्लाम मे रमज़ान महीने की बड़ी फजीलते बयान की गई है। रमज़ान एक ऐसा बा-बरकत महीना है, जिसका इंतजार साल के ग्यारह महीने हर मुसलमान को रहता है। इस्लाम के मुताबिक़ इस महीने के एक दिन को आम दिनों की हज़ार साल से ज़्यादा बेहतर (खास) माना गया है। मुस्लिम समुदाय के सभी लोगों पर रोजा फर्ज होता है, माहे-रमज़ान में रखा जाने वाला रोज़ा हर तंदुरुस्त (सेहतमंद) मर्द और औरत पर फर्ज़ होता है। रोज़ा लंबी सफर करने वालों में, छोटे बच्चों, बीमारों और सोच-समझ ना रखने वालों पर लागू नहीं होता। हालांकि, ये रोज़े इतने खास माने जाते हैं कि इन दिनों में किसी को लंबी सफर तय करने के बाद छूटे हुए आयामों का रोजा रख लें, बीमारी से ग्रस्त पीड़ित या पीड़िता के ठीक होने के बाद इन तीस दिनों में से छूटे हुए रोज़ों को रखना ज़रूरी होता है। रमज़ान में सेहरी, इफ़्तार के अलावा तरावीह की नमाज की भी बेहद अहमियत है।
वैसे तो रमज़ान जिसे इबादत के महीने के नाम से जाना जाता है, जो इस महीने के चांद के दिखते ही शुरू हो जाता है। रमज़ान का चांद दिखते ही लोग एक दूसरे को इस महीने की मुबारकबाद देते हैं, फिर उसी रात से तरावीह नमाज का सिलसिला शुरु हो जाता है, जो लगातार तीस रातों तक तरावीह पढ़ना सुन्नत है। बताया कि तरावीह एक नमाज़ है, जिसमें इमाम (नमाज़ पढ़ाने वाला) नमाज़ की हालत में क़ुरआन पढ़कर नमाज़ में शामिल लोगों को सुनाता है। इसका मकसद लोगों की क़ुरआन के ज़रिए अल्लाह की तरफ से भेजी हुई बातों के बारे में बताना है। तरावीह को बड़े ही सुकून के साथ सुनना चाहिए और तीसों रमजान तक पढ़ना चाहिए। तरावीह को रात की आखरी, यानि इशां की नमाज़ के बाद पढ़ा जाता है। पूरे रमजान 20 रिकाअत तरावीह पढ़ना सुन्नते मोएक्केदा (जरुरी) और तरावीह में एक कुरआन सुनना भी अलग से सुन्नत है। इसमें हर मस्जिद अपनी सहूलत के मुताबिक रमज़ान के तीस दिनों में से तरावीह पढ़े जाने के दिन तय कर लेते है और उन्हीं दिनों में क़ुरआन को पूरा पढ़ते और सुनते हैं। आमतौर पर तरावीह की नमाज़ में डेढ़ से दो घंटों का वक़्त लग जाता है।
मौलाना कासिम नूरी कासमी साहब कहते हैं कि तरावीह की नमाज अदा करने में गफलत व कोताही नहीं करें, बल्कि इमाम साहब के साथ नियत बांधे और उनके साथ ही सलाम करें। दौड़ कर या झट से रुकु में खड़ा ना हों। पूरे इत्मीनान के साथ नमाज अदा करें। उन्होंने कहा कि बहुत से लोग रोजा की हालत में गुल (मंजन) करते हैं, जो कि मकरूह है और रोजा कमजोर होती है। रोज़े के मायने सिर्फ यही नहीं है कि, इसमें सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहो, बल्कि रोज़ा वो अमल है, जो रोजेदार को पूरी तरह से पाकीज़गी का रास्ता दिखाता है।
रोजा इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई का रास्ता दिखाता है। महीने भर के रोजों को जरिए अल्लाह चाहता है कि इंसान अपनी रोज़ाना की जिंदगी को रमज़ान के दिनों के मुताबिक़ गुज़ारने वाला बन जाए। रोज़ा सिर्फ ना खाने या ना पीने का ही नहीं होता, बल्कि रोज़ा शरीर के हर अंग का होता है। इसमें इंसान के दिमाग़ का भी रोज़ा होता है, ताकि इंसान के खयाल रहे कि उसका रोज़ा है, तो उसे कुछ गलत बाते गुमान नहीं करनी चाहिए ।उसकी आंखों का भी रोज़ा है, ताकि उसे ये याद रहे कि इसी तरह आंख, कान, मुंह का भी रोज़ा होता है ताकि वो किसी से भी कोई बुरे अल्फ़ाज ना कहे और अगर कोई उससे किसी तरह के बुरे अल्फ़ाज कहे तो वो उसे भी इसलिए माफ कर दे कि उसका रोज़ा है। इस तरह इंसान के पूरे शरीर का रोज़ा होता है, जिसका मक़सद ये भी है कि इंसान बुराई से जुड़ा कोई भी काम ना करें।
मौलाना कासिम नूरी कासमी साहब कहते हैं कि कुल मिलाकर रमज़ान का मक़सद इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई के रास्ते पर लाना है। इसका मक़सद एक दूसरे से मोहब्बत, प्रेम, भाइचारा और खुशियां बांटना है। रमज़ान का मक़सद सिर्फ यही नहीं होता कि एक मुसलमान सिर्फ किसी मुसलमान से ही अपने अच्छे अख़लाक़ रखे। बल्कि मुसलमान पर ये भी फर्ज है कि वो किसी और भी मज़हब के मानने वालों से भी मोहब्बत, प्रेम, इज़्ज़त, सम्मान, अच्छा अख़लाक़ रखे। ताकि दुनिया के हर इंसान का एक दूसरे से भाईचारा बना रहे। गरीब मजलूम का ख्याल रखें। खूब सदका करें।
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